पटना। बिहार में मतदाता सूची की स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) प्रक्रिया को लेकर इन दिनों बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। एक ओर भाजपा इसे चुनावी पारदर्शिता सुनिश्चित करने वाला कदम बता रही है, वहीं विपक्ष इसे मताधिकार छीनने और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की साजिश करार दे रहा है। मामला इतना गंभीर हो चुका है कि यह सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है और अदालत ने चुनाव आयोग से जवाब भी मांगा है।
भाजपा का पक्ष: ‘केवल वैध नागरिक ही मतदान करें’
भाजपा नेताओं और प्रवक्ताओं ने विपक्ष के आरोपों को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा है कि SIR और वोटर लिस्ट की सफाई केवल इस बात को सुनिश्चित करने के लिए है कि सिर्फ वैध भारतीय नागरिक ही मतदान करें। भाजपा प्रवक्ता सांबित पात्रा और अन्य नेताओं का कहना है कि विपक्ष बिना किसी आधार के “वोट चोर” जैसे आरोप लगा रहा है।
भाजपा के तर्क हैं कि—
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यह प्रक्रिया चुनाव आयोग की निगरानी में चल रही है, सरकार का सीधा नियंत्रण नहीं है।
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यदि विपक्ष के पास कोई ठोस शिकायत है तो वे चुनाव आयोग या अदालत जाएं, केवल मीडिया या सार्वजनिक मंचों पर आरोप लगाने से विश्वसनीयता साबित नहीं होती।
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हाल के वर्षों में जिन इलाकों में रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों के बसने की खबरें आई हैं, वहां से फर्जी और डुप्लीकेट नाम हटाना बेहद जरूरी है।
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यह कदम किसी धर्म या समुदाय के खिलाफ नहीं बल्कि निष्पक्ष चुनाव के लिए अनिवार्य है।
भाजपा सांसदों का यह भी कहना है कि विपक्ष को डर है कि फर्जी नाम हटने से उनका “वोट बैंक” कमजोर होगा, इसलिए वह इस प्रक्रिया का विरोध कर रहा है।
विपक्ष का आरोप: ‘मताधिकार छीनने की कोशिश’
दूसरी तरफ कांग्रेस, राजद और अन्य विपक्षी दलों ने इसे लोकतंत्र पर हमला बताया है। विपक्ष का कहना है कि—
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SIR प्रक्रिया के नाम पर अल्पसंख्यक और गरीब तबके के लोगों के नाम बड़ी संख्या में हटाए जा रहे हैं।
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कई जगहों से शिकायतें आई हैं कि जिन लोगों के पास आधार कार्ड, वोटर कार्ड और अन्य सभी पहचान पत्र मौजूद हैं, उनके नाम भी सूची से गायब कर दिए गए।
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भाजपा इस प्रक्रिया का इस्तेमाल चुनाव से पहले मतदाता सूची में “इंजीनियरिंग” करने के लिए कर रही है।
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि यदि 56 लाख से अधिक नाम सूची से हटाए गए हैं, तो यह लोकतांत्रिक अधिकारों का सीधा हनन है। राजद ने इसे “संगठित मतदाता दमन” की साजिश बताया है।
चुनाव आयोग की कार्रवाई और अदालत की दखल
चुनाव आयोग ने बिहार में विशेष मतदाता सूची संशोधन अभियान चलाते हुए बताया कि—
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लाखों नाम डुप्लीकेट पाए गए।
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करीब 20 लाख मतदाता मृत पाए गए और उनके नाम सूची से हटाए गए।
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कई जगहों पर एक ही घर में सैकड़ों वोटरों के नाम दर्ज थे।
हालांकि, यह भी स्वीकार किया गया कि इस प्रक्रिया में त्रुटियाँ हुई हैं और कुछ वास्तविक मतदाताओं के नाम भी गलती से हटे हो सकते हैं। विपक्ष की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से स्पष्टीकरण मांगा है और यह सुनिश्चित करने को कहा है कि किसी भी वास्तविक मतदाता का नाम अन्यायपूर्ण ढंग से न काटा जाए।
आम जनता की चिंता
गांवों और शहरी इलाकों से ऐसी कई शिकायतें सामने आई हैं कि लोग जब मतदाता सूची देखने गए तो पाया कि उनके या उनके परिवार के सदस्यों के नाम हटा दिए गए हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि उन्हें बिना किसी नोटिस के “डुप्लीकेट” या “मृत” घोषित कर दिया गया।
इससे आम नागरिकों में चिंता है कि आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में वे अपने मताधिकार से वंचित न हो जाएं।
विश्लेषण
इस पूरे विवाद का मूल मुद्दा यह है कि चुनावों की पारदर्शिता और नागरिकों के अधिकारों में संतुलन कैसे बनाया जाए। भाजपा इसे लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी कदम बता रही है, जबकि विपक्ष इसे लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन मान रहा है।
फिलहाल, यह मामला न्यायालय और चुनाव आयोग के विचाराधीन है। अदालत और आयोग के निर्णयों के बाद ही यह साफ होगा कि वास्तव में SIR प्रक्रिया निष्पक्ष ढंग से लागू की गई है या इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप हुआ है।
सारांश—
बिहार में मतदाता सूची की सफाई और SIR प्रक्रिया केवल प्रशासनिक कार्रवाई नहीं रही, बल्कि यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुकी है।
भाजपा का कहना है कि इससे “फर्जी वोटरों” पर लगाम लगेगी और चुनाव निष्पक्ष होंगे, जबकि विपक्ष का आरोप है कि यह मताधिकार छीनने की सुनियोजित कोशिश है। अब देखना यह होगा कि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या रुख अपनाते हैं।